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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/४१६

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रघुराज सिंह
३६१
 

कामकरभ कर उरग वर रस शृंगार द्रुमडार॥
भुजनि जोहि यदुवीरके देव पराभव पार॥१५॥
श्रीयदुपतिके भुज युगल छाजि रहे छवि भौन॥
निरखत जिनहिं भुजंगवर लजि पताल किय गौन॥१६॥
देवकिनंदन कंठको रच्यो न विधि उपमान॥
जे जड़ दरको पटतरहिं तिनसम जड़ न जहान॥१७॥
ग्रीवा गिरिधर लालकी अनुपम रही विराजि॥
निरखि लाज उर दरकि दर बस्यो उदधि महँ भाजि॥१८॥
मनमोहनके नैनवर वरणि कौन विधि जाहि॥
कंज खंज मृग मैन शर मीनहुँ जेहि सम नाहि॥१९॥
यदुपति नैन समान हित विधि है विरचै मैन॥
मीन कंज खंजन मृगहु समता तऊ लहै न॥२०॥
भालपटलि नगवंतकी भनति नीठि॥
वशीकरन जपकरनकी मनमनाज सिधि पीठि॥२१॥
बाललाल के भाल में सुखमा बसी विशाल॥
सुछबि माल शशि अरधह्वै निरखत होत बिहाल॥२२॥
यदुपति भौंहनकी सुछबि मदन धनुषकी सोभ॥
जीति लसतहै तिनहिं लखि दृग न ठरत रतलोभ॥२३॥
भौंह वरुण यदुराजकी रही अपूरुष सोहि॥
करहि लजोहैं कामधनु शरमन लेवैं पोहि॥२४॥
हरिनासाकी सुभगता अटक रही दृग माँह॥
कामकीरके ठोरकी सुखमा छुवति न छाँह॥२५॥
गोल कपोल अतोल हैं छाये सुछबि अमान॥
मदन आरसी रसपसर सम शर करत अजान॥२६॥
श्रवण सलोने श्यामके छहरति छटा नवीनि॥
मदन महोदधि सीपकी सुखमा लीन्हीं छीनि॥२७॥