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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/४४६

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कौमुदी-कुञ्ज
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देखो याते गुणी जन मन सावधानी गहे हैं। हयदान हेमदान
राजदान भूमिदान सुकबि सुनाये औ पुराणन में कहे हैं।
अबतो कलमदान जुजदान जामदान खानदान पानदान
कहिबे को रहे हैं॥४३॥

चन्द्रमा पै दावा जिमि करत चकोर गण घनन पै दावा
कै मयूर हरषात हैं। भानु पर दावा कर विकसत कंज पुञ्ज
स्वाति बुन्द दावा कर चातक चचात हैं। सुकबि निहाल
जैसे करी के कपोलन पै अलिन अवलि करि नित मड़ारत हैं।
ऐसे महाराजन पै दावा कबिराजन को धूतन के द्वारे कहूँ
मूतन न जात हैं॥४४॥

शाह भये सूमड़ा सुबादशाह हीन हद्द खग्गे खगरेटन दुशा-
ला बेंच खाई है। भोले भये भूषति कनौड़े धनीवन्त सब
मूरख महन्थ अन्ध देत ना दिखाई है। कायथ कपूत भये कूर
रजपूत धूत बनिया बरुथ पेखि पुञ्ज पछिताई है। काके ढिग
जाई काहि कबित सुनाई भाई अब कविताई रही फजिहति-
नाई है॥४५॥

सासु के बिलोके सिंहिनी सी जमुहाई लेई ससुर के देखे
बाघिनी सी मुँह बावती। ननँद के देखे नागिनी सी फुफ
कारे बैठि देवर के देखे डाँकिनी सी डरपावती॥ भनत प्रधान
मोछैं जारती परोसिन की खसम के देखे खाँव खाँव करि
धावती। करकसा कसाइन कुबुद्धिनी कुलच्छनी ये करम के
फूटे घर ऐसी नारि आवती॥४६॥

गृहिनि बियोग गृह त्यागिन विभूति दीन्हीं योगिन
प्रमोद पुनवंतन छलो गयो। ग्रहनि ग्रहेश कियो शनि को
सुचित्त लघु व्यालनि स्वतंत्र सेस भारतें दलो गयो॥ "फेरन"
फिरावत गुनीन गृह नीच द्वार गुनन बिहीन घर बैठेही भलो