पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/४६

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( ५५ ) हरे हरे केसवा हरु रे कलेसवा तोरे नाम जपत बा पुजत बा जल बरसैला धान सरसैला भागदास प्रहलदवा के कारन तोरा के रटत महेसवा रे । सबसे प्रथम गनेस वा रे ॥ रे। सुख उपजैला मधवा रघवा है गेलें बधवा रे ॥ गाँव के लोग अपनी रोजमर्रा की बोलचाल को कविता को बड़े ध्यान से सुनते और खूब समझते हैं । तात्पर्य यह कि हिन्दी भाषा द्वारा वैष्णव धर्म का सम्मान बढ़ा और वैष्णव धर्म के साथ हिन्दी का प्रचार हुआ । हिन्दी और जैन जैन - साहित्य में हिन्दी का रूप सोलहवीं शताब्दी से स्पष्ट होने लगा हैं । उसके पहले वह प्राकृत और अप्रभ्रंश में ऐसी गुथी थी कि हम उसे हिन्दीं नहीं कह सकते । सं० १५८० में ठकुरसी नामक एक कवि ने " कृष्ण चरित्र " नामक एक छोटी सी कविता-पुस्तक लिखी, उसमें से एक छप्पय हम यहाँ उद्धृत करते हैं-- सतावै । भावें ॥ लागे । आगे ॥ कृपणु कहै रे मीत मझ्झु घरि नारि जात चालि धणु खरचि कहे जो मोह न तिहि कारण दुब्बलौ रयण दिन भूख न मीत मरणु आइयौ गुज्झु आखौ तू ता कृपण कहै रे कृपण सुणि, मीत न कर मन माँहि दुखु । पीहरि पठाइ दे पापिणी ज्यों को दिए यूँ होइ सुखु ।।