पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/४७

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( ४६ ) इस छंद में हिन्दी भाषा की एक स्पष्ट मूर्ति निकल आने बहुत थाड़ी कसर दिखाई पड़ती है । सत्रहवीं शताब्दी में सुप्रसिद्ध जैन कवि बनारसीदास हुये । इनका जन्म सं० १६४३ में, जौनपुर नगर में हुआ । इन्हों ने अपनी कविता में हिन्दी का रूप स्पष्ट कर दिया । इनके नाटक समय सार, अद्ध प्रसिद्ध हैं । अर्ध कथानक रचे चार ग्रंथ, बनारसा विलास, कथानक, और नाममाला ( कोष) इनका सबसे अच्छा ग्रंथ है। इसमें इन्होंने अपना ५५ वर्ष का आत्म-चरित लिखा है। इस ग्रंथ से इनकी कविता की थोड़ी सो बानगी आगे दिखलाते हैं सं० १६७३ में आगरे में प्लेग का प्रकोप हुआ । उसका वन इन्होंने ऐसा किया है

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इस ही समय ईति बिस्तरी, जहाँ तहाँ सब भागे लोग, निकसै गाँठि मरै छिन माँहिँ, चूहे मरै वैद्य मरि जाहिं,

परी आगरे पहिली मरी । परगट भया गाँठ का रोग | काहू की बसाय कछु नाहि । भयसो लोग अन्ननहि खाहिँ ।

जब अकबर बादशाह के भरने का समाचार जौनपुर पहुँचा, उस समय वहाँ के निवासियों की क्या दशा हुई, उसका वर्णन सुनिये

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इसी बीच नगर में सोर भयो उदंगल चारिहु ओर | घर घर दर दर दिये कपाट हटवानी नहिं बैठे हाट । भले पत्र अरु भूषन भले ते सब गाड़े धरती तले । घर घर सबनि बिसाहे सस्त्र लोगन पहिरे मोटे वल । ठाढ़ी कम्बल अथवा खेस नारिन पहिरे मोटे बेल ।