पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/४८

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( ४७.. ) . ऊँच नीच कोऊ न पहिचान चोरी धारि दिसे कहूँ नाहि धनी दरिद्रो भये समान | योंहों अपभय लोग डराहि । एक बार बनारसी दास परदेश में अपने साथियों के सहित कहीं ठहरे, इतने में पानी बरसने लगा । तब सब भाग कर सराय में गये, वहाँ जगह नहीं थी। बाजार में कहीं खड़े होने को स्थान नहीं था। सब के किवाड़ मंद थे। उस समय का वर्णन कवि ने इस प्रकार किया है -- कहै न कोइ । बरसत तोइ ॥ फिरत फिरत फावा भये बैठो तलै कौंच सों पग भरे ऊपर अंधकार रजनी विर्षे हिमरितु अगहन नारि मास । एक बैठन कहयो पुरुष उठ्यो लै बाँस ॥ बनारसीदास प्रतिभावान् कवि थे । इनके पश्चात् भूधर. दास आदि और भी कई अच्छे कवि हुये, जिन्होंने हिन्दी भाषा में बड़ी ललित कविताएँ रची हैं। जैन विद्वानों ने पूर्व काल से ही हिन्दी की उन्नति और उसके प्रचार में हाथ बटाया है । आज भी हिन्दी के लिये उनका उद्योग कम नहीं। हिन्दी और सिक्ख सिक्खों के आदि गुरु नानक देव ने हिन्दी का बहुत प्रचार किया। उन्होंने यात्राएँ भी बड़ी दूर दूर की की थीं। fer विद्वानों का कथन है कि वे जहाँ जहाँ जाते थे वहाँ हिन्दी ही में धर्मोपदेश करते थे। उनके कहे हुये वचन सब हिन्दी ही में हैं। सिक्खों के पाँचवें गुरु अर्जुनदेव जी हिन्दी के एक प्रसिद्ध लेखक थे । अपने से पहले हुये गुरुओं की वाणी का संग्रह करके " गुरु ग्रंथ साहब " की रचना