पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/५३

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( ५२ ) हो राग रागिनियाँ गाते थे। हिन्दू गवैयों का तो कहना हो क्या हैं, मुसलमान गवैये अब तक भी हिन्दी राग रागिनियाँ गाते हैं । मुसलमानी राजत्वकाल का इतिहास और हिन्दी का इतिहास यदि मिलाकर देखा जाय तो यह देखकर बड़ा आश्चर्य होता है कि मुसलमानों की उन्नति के साथ हिन्दी की उन्नति हुई है और उनके अधःपतन के साथ एक बार हिन्दी का भी रंग फीका पड़ गया था । जब मुसलमानी शासन का सूर्य उन्नति पर था, हिन्दी के बड़े बड़े प्रतिभा शाली कवि उसी समय में हुये थे । मुसलमानों की उन्नति के समय हिन्दी इस तरह फूली फली, कि उसके सुमधुर सुगंध और स्वाद से आजकल हम लोग बहुत आनन्द पा रहे हैं। हिन्दी के इस नाते से मुसलमानों की ओर हमारा प्रेम बढ़ जाता है । हिन्दी की इस उन्नति से मुसलमानों को गर्व होना चाहिये । यहाँ तक तो बादशाहों की कथा हुई, अब हम यह दिख- लाना चाहते हैं कि मुसलमान कवियों ने हिन्दी की उन्नति में कितना हाथ बटाया है । L चौदहवीं शताब्दी में सुप्रसिद्ध मुसलमान कवि अमीर खुशरो हुये। उनका फारसी और हिन्दी की मिलावट का एक गज़ल सुनिये :- ज़े हाले मिसकों मकुन तगाकुल दुराय नैना बनाय बतियाँ । किं तांबे हिजरां नं दाम ऐ जाँ न लेहु काहे लगाय छतियाँ ॥