पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/६१

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६ कविता-कौमुद हरपत अनन्द मन महि हुलस लै ज महल भीतर गई । पंजर अनूप नग मनि जटित सो तिहिं महँ रष्यत भई ॥ ६ ॥ दूहा राम खेल सब भुल्ल । पड़ावत फुल ॥ १० ॥ नख सिख लौं यह रूप । यह पदमिनी सरूप ॥ ११ ॥ तिही महल रम्पत भई गई। वित्त बहु यो कोर सरे कीर कुँवर तन निरखि दिखि करता करी बनाय के कवित्त कुट्टिल केस सुदेश पोह परवियत दिक्क सद | मंद ॥ जस कमल गंध वय संघ हंस गति चलत मंद सेत बा सो सरीर नख स्वाति बुद भमर भँवहि भुल्लहि सुभाव नैननिरखि सुख पाय सुक यह सदिन मूरति रचिय । उमा प्रसाद हर हरियत मिलहि राज प्रथिराज जिय ॥ १२ ॥ दूहा मकरंद वास सुक समीप मन कुँवर को लग्यो बचन रस ॥ कै हेत । अति विचित्र पंडित सुआ कथत जु कथा अमेन ॥१३॥ गाथा पुच्छत वयन सु नाले उच्चवरिय कीर कवन नाम तुम देस कवन यंत्र करय सच्च सच्चाये । परवेस ॥ १४ ॥ उच्चवरिय कीर सुनि बयन हिन्दवान दिल्ली गढ़ अयन' । तहाँ इन्द्र अवतार चहुआन तहँ प्रथिराजह सूर सुभारं ॥ १५ ॥