पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/६५

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दिष्यंत दिष्ट उच्चरिय वर इक्क पलक विलम्ब न करिय । अलगार रयन दिन पंच महि ज्यों रुकमनि कन्हर वरिय ॥ ४४ ॥ दूहा ज्यों रुकमनि कन्हर वरी शिव मँडप पच्छिम दिसा लै पत्री सुक यों चल्यो जहाँ दिल्ली प्रथिराज नर दिय कग्गर नृप राज कर सुक देखत मन में हँसे ज्यों वरि संभर कांत | पूजि समय स प्रांत ॥ ४५ ॥ उड्यो गगनि गहि बाव अट्ट जाम में जाव ॥ ४६ ॥ पुलि बंचिय प्रथिराज । कियो चलन को साज ॥४७॥ कवित्त उ घरी उहि पलनि उहै दिन बेर सकल सूर सामंत लिये सब बोलि अरु कवि चंद अनूप रूप सरसै वर और सेन सब पच्छ सहस सेना तिय चामंडराय दिल्ली रह गढ़ पति करि गढ़ अलगार राज प्रथिराज तब पूरब दिस तब गमन दूहा जादिन सिवर बरात गय तादिन गय उह्रै सजि । बंब बजि || कह बहु । सष्पहु । भार दिय । किय ॥ ४८ ॥ प्रथिराज । ताही दिन पतिसाह कौं भइ गजन अवाज ॥ ४६ ॥ कवित्त सुनि गज्जन अवाज चढघो खुरासान साहाब दीन बर । घुर ॥ भुअ । सुलतान कास काविलिय मीर जङ्ग जुरन जालिम जुकार भुज सार भार