पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/६६

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दबरदाई ११ धर धर्मकि भजि सेस गगन रवि लुप्पि रैन हुअ ॥ उलटि प्रवाह मनौ सिंधु सर रुक्कि राह अड्डौ रहिय । तिहि घरिय राज प्रथिराज सौं बंद बचन इहि विधि कहिये ॥ ५०॥ निकट नगर जब जानि जाय वर विंद उभय भय । समुद्र सिखर घन न ईद दुहुँ ओर घोर गय ॥ अगिवानिय अगिवान कुँअर बनि बनि हय सज्जति । दिन को त्रिय सबनि गौख चढ़ि छाजन रज्जति ॥ विलखि अवास कुवरि वदन मनो राह छाया सुरत । पति व पल पल पलकि दिखत पंथ दिल्ली सुपति ॥५१॥ पद्धरी दिप्ांत पंथ संदेश सुनत दिल्ली दिसान, सुख भयो सूक जब मिल्यो आन ॥ ५२ ॥ आनन्द नन, उमगीय बाल मनमध्य सेन ॥ ५३ ॥ तन चिकट चीर डालो उतार, मज्जन मयंक नव भूपन मँगाय न सिख अनूप, सत सिंगार ॥ ५४ ॥ सजि सेन मनो मनमथ्थ भूप ॥ ५५ ॥ सोवन थार मोतिन भराय, झलहल करंत दीपक जराय ॥ ५६ ॥ संगह सखीय लिय सहस बाल, रुकमिनिय जेम मज्जत पूजीय गवरि संकरि मनाय, भराल ॥ ५७ ॥ दच्छिन अंग करि लगिय पाय ॥ ५८ ॥ फिर देखि देखि प्रथिराज राज, हंस मुख मुद्ध चरपट्ट लाज ॥ ५६ ॥