पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/६७

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१२ कर पकरि पीठ हय पर चढ़ाय, लै चल्यो नृपति दिल्ली सुराय ॥ ६० ॥ भइ खबरि नगर बाहिर सुनाय पद्मावतीय हरि लीय जाय ॥ ६१ ॥ पहुँचे सु जाय तत्ते तुरंग, बाजी सुबंध हय गय पलान, दौरे सुसजि दिसह दिसान ॥ ६२ ॥ तुम्ह लेहु हु मुख जपि जोध, हप्ताह सूर सब अग्गे जु राज प्रथिराज भूप, पच्छे सुभयो सत्र भुअ भिरन भूप जुरि जोध जङ्ग ॥ ६५ ॥ पहरि क्रोध ॥ ६३ ॥ सैन रूप ॥ ६४ ॥ उलटी जु राज प्रथिराज बाग, थकि सूर गगन धर धसत नाग ॥ ६६ ॥ सामंत सूर सब काल रूप, गहि लोह छोह वाहै सु भूप ॥ ६७ ॥ कम्मान वान छुट्टहिं अपार, लागंत लोह इम सारि धार ॥ ६८ ॥ घमसान धान सव बीर खेत, घन श्रोन बहत अरु रुकत रेत ॥ ६६ ॥ मारे बरात के जोध जोह, परि दंड मुंड अरि दूहा परे रहत रिन स्वेत अरि जीति चल्यो प्रथिराज रिन करि दिल्लिय मुख रुक्ख । सकल सुर भय सुक्ख ॥ ७१ ॥ खेत सोह ॥ ७० ॥