पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/६८

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१३ पदमावति इस लै चल्यो हरखि राज प्रथिराज । एते परिपतिसाह की भई जु आनि अवाज ॥ ७२ ॥ कवित्त आज ग भई जु आनि अवाज आय साहाब दीन सुर । प्रथिराज बोल बुल्लंत गजत धुर ॥ क्रोध जोध जोधा अनंत करिय पंती अनि गज्जिय । बॉन नालि हथनालि तुपक तीरह सब सजिय ॥ पवै पहार मनो सार के भिरि भुजान गजनेस बल | आये हकारि हंकार करि खुरासान सुलतान दल ॥ ७३ ॥ भुजंग प्रयात खुरासान मुलतान खधार मीर, बलक सोवलं तेग अच्चूक तीरं ॥ ७४ ॥ निसानी ॥ ७५ ॥ जोध भारी ॥ ७६ ॥ उटी ठट्ट बलोच ढालं रुहंगी फिरंगी हलंबी समानी, जारी चखी मुक्ख जम्बक्क लारी, तिन पप्पर पीठ हय जीन सालं, हजारी हजारी इकें फिरंगी कती पास मुकलात लाल ॥ ७७ ॥ तहाँ बाघ वा मरूरी रिछोरी, घन सार संमूह अह चौर भोरी ॥ ७८ ॥ एराकी अरवी पटी तेज ताजी, तुरक्की महाबान कम्मान ऐसे असिव असवार अग्गेल गोलं, भिरे बाजी ॥ ७६ ॥ जून जेते सुतन्ते अमोलं ॥ ८० ॥ तिन मद्धि सुलतान साहाब आप,