पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/६९

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રક कविता कौमुद इले रूप से फौज बरनाय जापं ॥ ८१ ॥ तिन' घेरियं राज प्रथिराज राजं, चिहौ ओर घनघोर नीसान बाजं ॥ ८२ ॥ कवित्त बजिय घोर निसान रान हुआन चिहौ दिल | सकल सुर सामंत समरि बल जंत्र मंत्र उडि राज कढ़त तेग तस || प्रथिराज बाग लग मनो वीर नट । मनो बेग लगत मनो बीज झट्ट घट ॥ थकि रहे सूर कौलिंग गगन रगन मगन भई श्रोन घर | हर हरषि वीर जग्गे हुलस हुव रंगि नव रक्त वर ॥ ८३ ॥ दूहा हुव रंग नव रंत वर निल वासुर समुझि न परत न को हार नह धर उप्पर भर परत भयौ जुद्ध अति चित्त । न को हार नह जिस ॥ ८४ ॥ कवित्त जित्त रहेइ न रहहि सूर वर । करत अति जुद्ध कहौं कमध कहौं मध्य कहीं कंध वहि तेग कहीं दंत मत हय खुर कह कर चरन अंत महाभाग || कहीं सिर जुट्टि फुट्ट दरि । उर ॥ परि कुंभ भ्रसुंडह एंड सव | हिंदवान रान भय भान मुख गहिय तेग चहुआन जब ॥ ८५ ॥ भुजंग प्रयात गही तेग बहुवान हिंदवान रान, गजं जूथ परि कोप केहरि समान ॥ ८६ ॥ करे खंड मुंड करी कुंभ फारे, बरं सूर सामंत हुकिं गर्ज भारे ॥ ८७ ॥