पृष्ठ:कविवचनसुधा.djvu/१७

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कविबचनसुधा ।

सनेह खौफखद को खिलाफ भो मुनाफ भो मजा को जोहि जगत जुराफ भो ।। ६१ ॥

मानिनी मबास औध माफिक मवाप्त मानि मान मजबूत द्वै मुखा- लिफ मलीक भो । माख्यो मननात मारु मरजी मुफस्सिल भे मुदित मुहीम मल्ल मधु को अनीक भो ॥ मारुत मुसाहब मलिन्द मुखतार मंत्री मारू राग नौवति नकीब पिकपीक भो । फीक भो फसाद फूलहीक भी हकीक हियो नीक भो नजीक नेह रहम रफीक भो ।। ६२ ॥

केतकी कतार चारु चम्प कचनार प्रांम अगर अनार डौर डार मार को जनै । पाटल पलात आस पास बास भास खास अवनि अकास प्रेम पास हास सो सनै ।। चातकी सुचाह गन्ध-वाह को प्रवाह वाह राह रस को मुबाह कोकिला लिये भने । श्रोध उपरान सुख साज सो दरान दिल आजु ऋतुराज को समान देखते बन ॥ ६३ ॥

श्रावन में अगर अनारन औ वारन में औ बल अलोक औषधीन आवयेले को। अम्बर अटान आदि अलिन अबान अङ्ग अटकी अवास अम्बु अम्बुज अकेले को ॥ आले' अङ्ग असुक अभूषन अपीच औध आनद अतीव गने अब को अलेले को। आस पाठहूं अकास अवनि असेष अङ्ग पाछे। औध अमल बसन्त अलबेले को ।। ६४ ॥

सन्त के असन्त के अनन्त जन्त मन्त के सुरति कन्त तन्त के बिलोकि बाग वन्त के । वन्त केहू बीरन समीरही रहै न देत