सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कविवचनसुधा.djvu/१८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१७
कविवचनसुधा।


धीर सौर बीर लये सौरम दिगन्त के ॥ गन्त के महान औध कान्ह की लहान असहान मानवान मधुपान कुसुमन्त के । सन्त के कहन्त पिक बिरही दहन्त करौ कैसै बिना कन्त अन्त बासर बसन्त के ॥ ६५ ॥

पपीहा को कवित्त ।

चातक चमार चीरो चौंकि चौकि देत चूखे चूकत न चोट चाण्डारन को मूखी है । बावरी बनाक्त बयारि बरिजाय या बिसासिनि बियोगीनी के दोष बिना दूखी है ।। आये अब लौ न आली अवध अनन्ददान ऋतुराज रोपी है रमून रीति रूखी है। काढ़त करेजो काटि कुहूकी कटारी कोपि कैलिया कसाइन कलंक ही की भूखी है ॥ ६६ ॥

कमल मो रङ्ग औ मुलायमता लीन्हीं सब चंचलता मीन खज मृग श्यामताई है । मैनवान कुन्तन कटाक्ष की कटाई लीन्हीं मोदकता मत्त दन्ति कविता बताई है ।। बसीकर्ण मोहन सो दोनो ये बिचारि लीन्ही गोरू द्वैज चन्द्रमा सी भ्र की कताई है। यहि विधि विधि विधि सकल सकेलि साज प्यारी नैन राखि कीन्ही सर्वोपरिताई है ॥ १७ ॥

ऐसी नहिं मृगन न खज मीन ऐसी लखी पेखी नहिं कुन्त नोक जहर सुढारती । नहिं ऐसी पन्नगी न गीसुरी रु आसुरी न किन्नरी नरीन बीच सोसिनान्न तारती ॥ हीरा की कनी हूं ऐसी चूभै नाहि चित्त बीच देइ जाकी उपमा सो हारी हेरि मारती ।