पृष्ठ:कविवचनसुधा.djvu/३६

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कविबचनसुधा।

आजु लखी ब्रजरान प्रिया पथ्यकहिं पै सुख व्वै रहे हैं बर । आनँद सो मुसकाय कछू बलदेव तमोलहिं ले रहे हैं कर ॥ सो भर मैन महीपति के भट लान समाजहिं के रहे हैं डर । चारिहू नैन कसाकसी कै भृकुटी धनु पै जनु दे रहे हैं सर ॥ कुलकानि सुवानि सुनी सिगरी उर धीरज नेक घिरात नहीं । मृदु मूरति सांवरी बावरी कै चलिगै किंतहूँ सो सुझात नहीं ॥ गनपाल कहै तू मिलावन आनि सो मों मन में तो बिसात नहीं। सिख तेरी है सीतल नीर सी पै बिरहागि हिये की बुझात नहीं॥

कवित्त।

आजु कुंन मन्दिर अनंद भरि बैठे श्याम श्यामासङ्ग रङ्गन उमङ्ग अनुरागे है । घन घहरात बरसात होत जात ज्यों ज्यों त्योंही त्यों अधिक दोऊ प्रेम पुन पागे हैं ।। हरिचन्द अलकै कपोल पै सिमिट रही बारि बुन्द चुवत अतिहि नीक लागे हैं। भीजि भीजि लपटि लपटि सतराइ दोऊ नीलपीत मिलि मये एकै रङ्ग बाग है ॥ ४२ ॥

सवैया ।

ब्रज के सब नाउ धरै मिलि ज्यों ज्यों बढायकै त्यों दोऊ चाव करें। हरिचन्द हँसैं जितनो सबही तितनो हृढ़ दोऊ निमाव करें । सुनि के चहुंघा चरचा रिस सों परतक्ष ये प्रेम प्रभाव करें । इत दोऊ निसंक मिले बिहरै उत चौगुनो लोग चवाव करें ।।४।। हौं करि हारी उपाव घनी सजनी यह प्रेम फँदो नहिं टूटै ।