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कविचचनसुधा ।


चीर २ ॥ रामदास दे हांक कहत हैं सुनिये चारिउ बीर । आजु भाजि के नहिं उबरोगे श्रीसरयू के तीर ३ ॥ ६७ ॥

राग विलावल।

प्रात समय दधि मथत यशोदा अति सुख कमल नैन गुण गावति । नील बसन तन सजल जलद मनु दामिनि दिवि भुज-दण्ड चलावति ॥ चन्द बदनि लट लटकि छबीली मनु अम्मृत रस राहु चुरावति । गोरस मथत नाद इक उपनत किंकिणि धुनि सुनि श्रवण रमावति ॥ सूरस्थाम अचरा धीर ठाड़े काम कसौटी कसि दिखरावति ॥ ६८॥

प्राणपति नाही आये बीती बहार । घुमडि आये घनघटा चहूदिसि भरि गयो नदी अरु नार || बिजुरि तडपि धन गरजि वरषि जल सघन रनि अँधियार । डरपति विरह अकेली कामिनि नहिं गृह राजकुमार ॥ यह तन रैन सैन को सपना निकसत नाहीं सार । हे द्विनराम आस चरणन की राखो शरण उदार ॥ ६९ ॥

कवित्त ।

चारो युग बीच मीच मद को मलनहार नाम सुखसार तरवार धार- धाक है । यामे जो मरम धुर धरम धुरीन जन जानत सुजान जोन दिव्य दिलपाक है ॥ माया मल मद मांझ बस्यो जाको चित्त तौन लखि ना सकत नाम महिमा अवाक है । युगल अनन्य जाहि रुचत न रामलाल ताहिं पर बार बार कोटिन तलाक है ॥ ७० ॥