पृष्ठ:कविवचनसुधा.djvu/५७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५६
कविवचनसुधा ।

ना तरु लाख बनै बिगरै निज अंक भुजा भरिकै मिलि लीजिये ।। ठाकुर आवत यों मनमें कुलकानि को आजु बिदा करि दीजिये। जौ अपनो बस होइ सखी तो गोपालहिं आखिन ओट न कीजिये।

नैनन नीर न धार अपार न हां करि सांस भरै सुख कन्द को । चापलता दरसाय रही बलदेव कहो सो बिचारि ले मन्द को ॥ लोक की लाज नही पटकी न तो तोयो अबै जग जाल के फन्द को। नाहक नेह की बातें करै अरी नीके न तू निरख्यो नदनन्द को ।।

सांकरी खोरि में सांवरे सों जुड़ी दीठि सों दीठि मुकालिबे की। दृग देखि दली सकुची सिमटी सुधि ना रही बूंघुट घालिचे की ।। यह धौं अपराध लगायो कहा पर ती के नहीं चित सालिबे की। यहि गांव-चवाइन सों मिलि के परी प्रीति पतिव्रत पालिबे की।

ये ब्रजचन्द गोबिन्द गोपाल सुनो ने क्यों केते कलाम किये मैं त्यों पदमाकर आनद के नन्द हो नन्दनन्दन जानि लिये मै ॥ माखन चोरिकै खोरिन है चले भाजि कछू भय मानि जिये मैं । दौरिहं दौरि दुग्यो जो चहो तो दुरो क्यों न मेरे अँधेरे हिये मै ।।

कासों कहौ कोउ पीर न जानत तासों हिये की बतैयतु नाहीं। चौचंद ठाकुर है ब्रज में त्यहिते छन ही छन ऐयतु नाहीं ॥ आय के राह में भेंट भई छनएक मिले ते अधैयतु नाहीं। अङ्ग लगाइ कै जीबो चहै तिन्है आंखिन देखन पैयतु नाहीं ॥

अँग पारसी से जो पै भाषत हौ हरि आरसीही को सवाँरा करो। सम नैन के खंजन जानत तो किन खंजनही को इशारा करो। कवि शंकर शंकर से कुच जौ कर शंकर ही पर धारा करो ।