पृष्ठ:कविवचनसुधा.djvu/७०

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कविबचनसुधा।

गम सादी दुख सुख दुनियां के सो सहज स्वभाव न झेला कर । मुरशिद की मेहर सहाय सदा वेभरम खलक में खेला कर ॥२०॥ जो- जिकिर करो तो फिकिर छुटै नहि इकदिन जालिम लूटेगा। मैंदान मौत में यार तेरा यह तन तिनका सा टूटैगा ॥ जो मालिक से रूगोस हुआ फिर किप्तका लै कर छूटेगा। सुख पैहौ रामसहाय तभी जब भरम का भाँडा फूटैगा ॥ २१ ॥ ऐन-इश्क नहीं घर खाला का जो झप्सेती घुस जाओगे। बिन पूछे याचे खोलि कमर ऑगन में खाट बिछाओगे ॥ सिर काटि मनी को मैदाँ कर मुरशिद की ठोकर खाओगे। तब रामसहाय मिटाय खुदी महबूब महल कहुँ पाओगे ॥२२ ॥ गैन-गौर किया कर बहुतरा चिन भेदी भेद न पावेगा। उस अमर नगर की गैब गली बिन पूछे क्योंकर जावेगा । सिर पाय सेती उल्झाय रहा बिन समुझ कौन समझावेगा। तू रामसहाय विना मुर्सिद पानी में भीति उठावेगा ॥ २३ ॥ फे-फुर्सत का है वक्त अभी उठि बैठो अपना काम करो । इस मन मंजिल को तैं करके फिर खालि कमर आराम करो ॥ आशक तो नाम धराय चुके इस नाम को मत बदनाम करो । तुम रामसहाई राम जपो सब और खियालैं खाम करो ॥ २४ ॥ काफ़-कॉल किया था क्यों तुमने जो तुम को काम न करना था। क्यों पेट में पट्टा लिक्खा था जो दाम दिरम नहिं भरना था । फिर कफनी क्योंकर पहिनी थी जो जवितही ना मरना था। सब छोड़ के रामसहाय तुझे अब ध्यान धनी का धरना था ॥