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कविबचनसुधा।

मारे सवियोग योग गथ के ॥ ऐसे में न कीजिये पयान परदेश प्राणप्यारी यों कहत फरकत मोती नथ के । सावन सघन घन झूमत मतङ्ग अवनीप मनमथ के ॥ ४ ॥

धौरे धौरे धूमरे धुधारे धाये धराधर धरि के धरनि अब लागे जल छंडै ये। कहैं गुरुदीन तापै बोलत कल्पपी पापी डोलत समीर करें धीरज के खंड ये ॥ कहां जाउं कैसी करौ कामों कहौ सुनै कौन लावत न जीहा तापै पपिहा प्रचडै ये । अखिल ब्रह्मडै तम मंडै है उदंडै घन घुमडि घमंडै बिन प्यारे तड़ि तडै ये ॥ ५॥

जुगनू जमाती कधों बाती बारि खाती प्राण ढूंढत फिरत घाती मदन अराती है । झिल्ली मननाती मननाती है विरह भेरी कोकिला कुजाती मदमाती अनखाती है ॥ घटा घननाती सननाती पान शिवनाथ फनी फननाती ये लगत ताती जाती है। सावन की राती दुखदाती ना सोहाती मोर बोलै उतपाती इत पातिहू न आती है ।। ६॥

धारे मेघवारे बेसुमारे घनकारे परै जात न संभारे पैन धारे ज्यों दुधारे की । झिल्ली झनकारे बैन बोलै दुखदारे कान फोरत हमारे जीम चातकी गँवारे की ॥ सारे ब्रजवारे मन-मारे तन जारे अहो थकतु निहारे वाट यमुना किनारे की। बैजनाथ प्यारे बिन ब्याकुल बिचारे प्राण सुनते दुखारे धुनि बारिद नगारे की ॥ ७॥

बाजत नगारे मेघ ताल देत नदी नारे झींगुरन झांझ