जहाँ पर चारो ओर सुन्दर बाग और वन ऐसे छाए रहते है मानो घने बादल छाये हो, जहाँ शोभा की घर तथा हसमाला जैसी सुन्दर नदी (बेतवा) बहती है। ऊँचे-ऊँचे महलो पर ऊँची-ऊँची पताकाए तरल कौशिकी नदी सी खेलती हुई जान पडती है। जहाँ अपने सुखो के आगे राजाओ के सखो की भी निन्दा करनेवाले अर्थात् राजाओ से भी बढकर सुखी, देवता जैसे स्त्री-पुरुष घर-घर मे दिखलाई पडते है। 'केशवदास' कहते है कि जहाँ केवल अदृष्ट (प्रारब्ध या भाग्य) का ही त्रास है, उस ओरछा नगर पर ससार के और नगरो को निछावर कर देना चाहिए।
वनवर्णन
दोहा
सुरभी, इभ, वनजीर बहु, भूतप्रेत भय भीर।
भिल्लभवन, वल्ली, विटप, दव वन वरणहुँ धीर॥६॥
हे धीर! वन का वर्णन करते समय सुर भी (चमरी गाय), इभ (हाथी), बनैले जीव-जन्तु, भूत-प्रेतो की भीड़ भीलो के घर, लताए, वृक्ष और दावाग्नि का वर्णन करो।
उदाहरण
कवित्त
'केशौदास' ओड़छे के आस-पास तीस कोस,
'तुगारण्य, नाम वन बैरी को अजीत है।
विध्य कैसो बंधु वर वारन वलित, बाघ,
बानर, बराह बहु, भिल्लन अभीत है।
यम की जमाति किधौ जामवंत कैसौ दल,
महिष सुखद स्वच्छ रिच्छन को मीत है।
अचल अनलवंत, सिधु सुरसरित युत,
शंभु कैसो जटाजूट परम पुनीत है॥७॥