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पृष्ठ:कवि-प्रिया.djvu/११७

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समुद्र वर्णन

दोहा

तुगतरग गॅभीरता, रतन धुजलज बहुजत।
गंगासंगम देवतिय, यान विमान अनन्त॥१८॥
गिरि बड़वानल वृद्धि बहु, चन्द्रोदयते जानु।
पन्नग देव अदेव गृह, ऐसो सिन्धु बखानु॥१९॥

समुद्र का वर्णन करते समय, ऊँची लहरें, गभीरता, रत्न, कमल, बहुत से जन्तु, गगा का सगम, देवताओ की स्त्रियाँ, अनेक प्रकार के यान तथा विमान, पहाड, बडवाग्नि, चन्द्रोदय से बृद्धि होना, सांप, देवता और राक्षसो का घर, आदि बातो का वर्णन करना चाहिए।

उदाहरण (१)

सवैया

शेष धरे धरणी, धरणी धर केशव जीव रचे विधि जेते।
चौदहलोक समेत तिन्हें, हरिके प्रतिरोमनि मे चित चेरो॥
सोवत तेऊ सुनै इनहीं मे, अनादि अनन्त अगाधहैं येते।
अद्भुत सागर की गति देखहु सागरही महँ सागर केते॥२०॥

'केशवदास' कहते हैं कि शेष पृथ्वी को धारण किये हुये है और जितने जीव ब्रह्मा ने बनाये है उन सबको पृथ्वी धारण करती है। वे जीवो सहित चौदहो लोक, हरि (विष्णु) के रोम-रोम मे समाये हुए हैं यह बात (पुराणो के अनुसार) मन मे आती है। परन्तु ये समुद्र इतने अनन्त और अगाध है कि वे विष्णु भी इन्हीं में सोया करते हैं, ऐसा सुना जाता है। समुद्र की अद्भुत गत तो देखा कि समुद्र में कितने ही समुद्र भरे पडे है।

भूति विभूति पियूषहुकी विष, ईशशरीर कि पाप बिपोहै।
है किधौ केशव कश्यपको घरु, देव अदेवनिके मन मोहै॥
संतहियो कि बसैं हरि संतत, शोभअनन्त कहै कवि कोहै।
चंदननीर तरंग तरंगित, नागर कोउ कि सागर सोहै॥२१॥