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पृष्ठ:कवि-प्रिया.djvu/१२४

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वाला होता है। वह कद, मूल, फल और दलो या पत्तो का नाश करता है और उसके मारे कीचड़, मछलिया, बिलो मे घुसे साँप और गुफाओ मे घुसे हुये हुए कोल (बाराह) तथा द्विरद (हाथी) कहीं बच पाते हैं। अर्थात् नहीं बच पाते। यह तो उनका दिन कृत अर्थात् दिन प्रतिदिन का विलास या मनोरजन है। वह (शवरदल) वन-वन मे घूमकर चर और अचर जीवो का जीवन हरण करता रहता है और (केशवदास कहते हैं) कि उनका निवास स्थान मृगशिर (हिरनो के सिर) तथा श्रवण (कानो) से भरा रहता है अर्थात् उनके निवास स्थान मे हिरनो के कटे हुए अग प्रत्यङ्ग मिला करते है या मृगो के शिरो से श्रवित (टपकता हुआ) रक्त भरा रहता है। वह थल बली (शवरदल) हाथ मे धनुष और निपानि (अचूक) सर (वाण) लिए घूमता रहता है।

उसी प्रकार---

ग्रीष्म भी चडकर कलित (सूर्य की प्रचड किरणो से युक्त) रहता है और सदागति अर्थात् श्रेष्ठवायु या लू के झोको से युक्त रहता है। उसमे कन्द, मूल, फल, फूल और पत्तो का नाश होता रहता है। ग्रीष्म मे दिवकृत (सूर्य) का विलास (प्रभाव) ऐसा रहता है कि कोचड़ मे मछलिया, बिल में घुसकर सर्प और गुफाओ मे घुसकर कोल (सूअर) तथा द्विरद (हाथी) किसी प्रकार बच पाते है। ग्रीष्म थल और जल के चर अचर जीवो का जीवन (जल) हरने वाला होता है। इसमे मृगशिरा नक्षत्र तपता है और श्रवन अर्थात् बरसता नहीं। इसमे बली (गैंडाजन्तु) धनुष अर्थात् मरु-भूमि की भाति हत-प्यासा होकर निपानि सर (पानीरहित) तालाब की ओर दौड़ता रहता है।

(३) वर्षा वर्णन

दोहा

वरषा हॅस पयान, बक, दादुर, चातक मोर।
केतिक पुष्प, कदम्ब, जल, सौदामिनी घनघोर॥३१॥