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पृष्ठ:कवि-प्रिया.djvu/१२८

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घट की घटित जाति घटना घटीहू घटी,
छिन छिन छीन छबि रविमुख सुख की।
सीकर तुषार स्वेद सोहत हेमन्त ऋतु,
किधौ 'केशौदास' प्रिया प्रीतम विमुख की॥३६॥

'केशवदास' कहते है कि यह हेमन्त ऋतु है या अपने प्रियतम से अलग वियोगिनी स्त्री है। क्योकि हेमन्त ऋतु मे जिस प्रकार निर्मल कमल दलो मे लोचन अर्थात् शोभा नहीं रहती और शीत समीर उन्हे धीरे-धीरे जलाये डालता है और इसमे दुखो का बडा डर रहता है। लोगो से मारे ठड के न तो पानी पिया जाता है और न चन्दन लगाया जाता है तथा न चन्द्रमा की ओर देखा ही जाता है। इस ऋतु मे शरीर की ऐसी ही प्रकृति हो जाती है। दिन की घडिया दिन-दिन घटती जाती है अर्थात् दिन छोटा होता जाता है। और सूर्य के मुख की शोभा क्षण क्षण क्षीण होती जाती है। अर्थात् सूर्य ताप मे बल नहीं रहता। इस हेमन्त ऋतु मे तुषार के सीकर (करण) लोगो को अच्छे लगते है और किसी प्रकार गर्मी पाकर शरीर मे पसीना आने लगे तो वह अच्छा लगता है।

उसी प्रकार---वियोगिनी स्त्री के कमल-दल जैसे लोचनो (नेत्रो)

तथा उसकी ललित गति (सुन्दर चाल) को, शीत वायु जलाएँ डालता है। उसे दुखो का बड़ा भय लगा रहता है। उसके शरीर का कुछ ऐसा स्वभाव हो जाता है कि न तो उससे पानी पिया जाता है न खाया जाता है और न चन्दन लगाया जाता है और न चन्द्रमा की ओर देखा ही जाता है। उसके शरीर की रचना दिन-दिन घटती जाती है अर्थात् वह दुबली-पतली होती जाती है तथा उसके सूर्य जैसे चमकीले मुख की चमक तथा सुख क्षण-क्षण क्षीण होता जाता है और उसे (वियोग को तपन के मारे) तुषार की सीकर (कण) पसीने की बूदो जैसे भासित होते हैं।