पुरोहित को राजा का हितैषी, वेद का ज्ञाता, सत्यवक्ता, पवित्र, उपकारी, ब्रह्म मे लीन, सीधे स्वभाव वाला तथा कामजित जितेन्द्रिय होना चाहिए।
उदाहरण
कवित्त
कीन्हों पुरहूत मीत, लोक लोक गाये गीत,
पाये जु अभूतपूत, अरि उर त्रास है।
जीते जु अजीत भूप, देस-देस बहुरूप,
और को न 'केशौदास' बल को बिलास है।
तोरयो हर को धनुष, नृप गण गे विमुख,
देख्यो जो बधू को मुख सुखमा को बास है।
है गये प्रसन्नराम, बाढो धन, धर्म, धाम,
केवल वशिष्ठ के प्रसाद को प्रकास है॥१२॥
राजा दशरथ ने इन्द्र को जो मित्र बनाया, लोक-लोक मे जो उनकी प्रशसा के गीत गाये गये। उन्हे जो अभूतपूर्व पुत्रो की प्राप्ति हुई तथा उन्होने देश-देश के अनेक अजीत (न जीते जाने योग्य) राजाओ को जीता, सो 'केशवदास' कहते है कि यह किसी और के बल के कारण नहीं हुआ, यह केवल वशिष्ठमुनि की प्रसन्नता के प्रभाव के कारण ही हुआ। इसी प्रकार श्रीरामचन्द्र ने शिवजी का धनुष तोडा, अन्य राजागरण विमुख होकर चले गये, अति सुन्दर वधू का मुख देखा, परशुराम भी प्रसन्न होकर गये, और धन तथा धर्म की वृद्धि हुई, यह भी उन्हीं वशिष्ठ गुरु की प्रसन्नता के प्रभाव के कारण ही हुआ।
दलपति वर्णन
दोहा
स्वामिभगत, श्रमजित, सुधी, सेनापती अभीत।
अनालसी, जनप्रिय, जसी, सुख, सग्राम, अजीत॥१३॥