कमल-नैनी (जल से भरे हुए नेत्र वाली, हो जाऊँगी। अर्थात् ध्यान मे देखने पर और भी रोऊँगी। और अधिक क्या कहूँ? ये आप (पानी) के भरे घनश्याम (बादल) मेरे लिए तो धन (हथौडे) के समान हो रहे है। मै सावन के दिनो मे घनश्याम के बिना कैसे रहूँ?
(३)
सवैया
मेह के है सखि ऑसू उसासनि, साथ निशा सुविसासिनि बाढ़ी।
हास गयो उड़ि हसिनि ज्यो, चपलासम नींदगई गति काढ़ी॥
चातक ज्यों पिवपीव रदै चढ़ि, ताषतरगिरि ज्यो अति गाढ़ी।
केशव वाकी दशा सुनिहौ अब आगि बिना अँगअंगनि डाढ़ी॥४२॥
हे सखी! उसके आँसू क्या है; मानो मेह है (वर्षा हो रही है)। उसकी श्वासो के साथ ही यह विश्वासघातिनी रात भी बढ गई है। उसकी हँसी तो हस की तरह कहीं उड कर चली गई है और नींद तो चचला (बिजली) की गति से भी आगे बढ़ गई है। जैसे बिजली क्षण मात्र के लिए चमक जाती है, वैसे क्षण मात्र को ही आकर चली जाती है वह चातक की तरह बार बार 'पी, पी' की पुकार करती रहता है और उसके शरीर मे ताप (जलन) की अति गाढी (बहुव तीव्र) तरगे उठ रही है। (शरीर वियोग्नि से जल रहा है)। 'केशवदास' (सखी की ओर से सखी की दशा का वर्णन करते हुए सखी से) कहते है कि तुम उसकी दशा क्या सुनोगी? बिना आग के ही बेचारी के अग-अग जले जा रहे है।'
(४)
सवैया
भूलि गयो सबसों रसरोष, मिटे भवके भ्रम रैनि विभातो।
को अपने परको पहिचानत, जानत नाहिनै शीतल तातो॥
नीकही मे वृषमानललोकी भईसु, न जीकी कहीपरै बातो।
एकहिबेर न जानिये केशव काहेते छूटगये सुख सातो॥४३॥