तिन के सुत ग्यारह भये, जेठ साहि संग्राम । दक्षिण दक्षिणराज सों, जिन जीत्यो संग्राम ॥३६॥ भरतखण्ड भूषण भये, तिन के भारतसाहि । भरत, भगीरथ, पारथहि, उनमानत सब ताहि ॥३७॥ सुत सोदर नृप रामके, यद्यपि बहु परिवार । तदपि सबै इन्द्रजीत शिर राजकाज को भार ॥३८॥ कल्पवृक्ष सो दानि दिन, सागर सो गम्भीर ।। केशव शूरो सूरसो, अर्जुन सो रणधीर ॥३६॥ ताहि कछोवाकमल सो, दीन्हों नृप राम । विधि सों साधत बैठि तह, भूपति वाम अवाम ॥४०॥ उनके कोई पुत्र उत्पन्न नहीं होने पाया कि वह स्वर्ग लोक सिधार गये । तब उनके सगे भाई मधुकरशाह राजा हुए । उनके राज्य में किसान कुशलपूर्वक निवास करते थे। उन्होने सिन्धु नदी के इस ओर ही नहीं, प्रत्युत उस ओर दूसरे किनारे पर भी अन्य राजा के राज्य में विजय का डका बजाया। उन पर जो शत्रु चढकर आये, वे हार कर गये और जिन पर उन्होने स्वय चढाई की, उन्हे वे मार कर आये। महाप्रतापी अकबर ने पृथ्वी की चारो दिशाओ को जीत लिया था, परन्तु मधुकरशाह ने उसके किले भी अपने अधीन कर लिए । सुलतान (अकबर) को तो वह साधारण खान (सरदार) समझते थे और अन्य राजा-रावो को तो कुछ गिनते ही न थे । स्वय मुरादशाह मधुकरशाह से हार गये थे । उन्होने अपने स्वार्थसाधन के साथ ही साथ परमार्थं से भी स्नेह किया और वह ब्रह्मरध्र मार्ग द्वारा (तालु फट जाने से) शरीर छोड कर स्वर्ग सिधारे । उनके बडे पुत्र दुलहराम तथा छोटे होरिलराव हुए जो बैरियों को मारने वाले और अपने वश की शोभा थे तथा समस्त पृथ्वी पर उनका प्रभाव था। फिर (तीसरे) रण-बाँकुरे नृसिह और चौथे) रत्नसेन थे, जिन्होने जलालुद्दीन अकबर शाह को हराया था और जिनको बडी प्रशंसा थी।