पृष्ठ:कवि-प्रिया.djvu/१७०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
दसवां-प्रभाव

आक्षेपालंकार

दोहा

कारज के आरभ ही, जहँ कीजत प्रतिषेध।
आक्षेपक तासों फहत, बहुविधि बरणि सुमेध॥१॥

जहाँ कार्य के आरम्भ मे ही, उसका प्रतिषेध कर दिया जाता है, वहाँ विद्वान आक्षेप अलकार मानते है।

तीनहुँ काल बखानिये, भयो जु भाभी होइ।
कविकुल कोऊ कहत है, यह प्रतिषेधहि दोइ॥२॥

यह प्रतिषेध तीनो कालो अर्थात् भूत, भविष्य और वर्तमान मे वर्णित हो सकता है। परन्तु कुछ कवि लोग इसे दो ही कालो (भावी और भूत) मे वर्णन करते हैं।

भूत कालिक प्रतिषेध

बरज्योंहौ हरि, त्रिपुरहर, बारक करि भ्रूभंग।
सुनो मदनमोहनि! मदन, ह्वैही गयो अनग॥३॥

(कामदेव की स्त्री रति से उसकी सखी कहती है) कि मैने कामदेव को मना किया था कि त्रिपुरारि शिवजी से शत्रुता न करो। (परन्तु मेरा कहना उसने नहीं माना और परिणाम यह हुआ कि) हे मदन मोहनी (रति)। उनके तनिक भ्र भग (टेढी भौंहे करते ही मदन अनग (शरीर रहित) हो ही गये। [इसमे 'बरज्यो' भूत काल सूचक क्रिया है, अतः भूत कालिक प्रतिषेध है]

भावा प्रतिषेध

ताते गौरि न कीजिये, कौनहुँ विधि भ्रूभंग।
को जानै लैजाय कह, प्राणनाथ के अंग॥४॥