पृष्ठ:कवि-प्रिया.djvu/१८१

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४-आषाढ़वर्णन

पवनचक्र परचंड चलत चहुँओर चपलगति।
भवन भामिनी तजत भ्रमत मानहुं तिनकी मति॥
सन्यासी इहि मास होत इक आसनवासी।
पुरुषनकी को कहै भये पक्षियो निवासी॥
इहि समय सेज सोवन लियो,श्रीहि साथ श्रीनाथहूँ।
कहि केशवदास अषाढ़चल मै न सुन्यो श्रुति गाथहू॥२७॥

आषाढ मे चारो ओर से प्रचड पवनचक्र चचल गति से चला करते है। वे चलते हुए पवनचक्र ऐसे ज्ञात होते हैं मानो, इस मास मे घर और स्त्री को छोड़ने वालो की मति चक्कर खा रही है। इस महीने मे सन्यासी भी एक स्थान पर रहने वाले हो जाते है। पुरुषो की तो बात ही क्या है, पक्षी तक एक स्थान के निवासी हो जाते हैं। इस महीने मे श्रीनाथ (भगवान्-नारायण) ने भी लक्ष्मी को साथ लेकर-शय्या पर सोना स्वीकार किया है। इसीलिए केशवदास पत्नी की ओर से कहते है कि) मैने आषाढ के महीने मे वेदो तक में परदेश जाना नहीं सुना।

५-सावन वर्णन

केशव सरिता सकल मिलत सागर मनमोहै।
ललित लता लपटाति, तरुनतन तरुवर सोहै॥
रुचि चपला मिलि मेघ, चपल चमकत चहुँ ओरन।
मनभावनकहँ भेट भूमि, कूजत मिस मोरन॥
इहिरीति रमन रमनी सकल रमन लगे मनभावने।
पियगमन करनकी को कहै गमन न सुनियत सावने॥२८॥

(केशवदास---पत्नी की ओर से कहते हैं कि) सावन मे सभी नदियां समुद्र से मिलती हुई मन को मोहती हैं। पेड़ो के शरीरो से लपटी हुई लताएँ शोभा पाती है। बादलो से मिलकर, चचल बिजली चारो