ओर चमकती है और पृथ्वी भी मानो अपने मनभावन ( जल ) से
भेंट करके, मोरो के बहाने कूजती है। इस प्रकार सभी ( जड़-चेतन )
स्त्री-पुरुष रमने रमाने लगे । अत हे प्रियतम | विदेश गमन करने की कौन
कहे, सावन मे तो लोग गमन ( गौना, द्विरागमन ) तक नहीं करते ।
२-भादौवर्णन
घोरत घन चहुँ ओर, घोष निरघोषनि मंडहिं ।
धाराधर धर धरनि मुशलधारन जल छंडहि ॥
झिल्लीगन झनकार पवन, झूकि झुकि झकझोरत ।
बाघ, सिह, गुजरत पुज, कुजर तरु तोरत ॥
निशिदिन विशेपनिहिशेष मिटिजात सुअोली ओड़िये।
देश पियूप विदेश विष भादौ, भवन न छोड़िये ॥२॥
भादो मे बादल चारो ओर घिर कर गम्भीर गर्जना किया करते
है । और पृथ्वी के निकट आ-आकर, मूसल जैसी धारा से पानी वर्षाया
करते हैं । झिल्लियो की झनकार सुनायी पडती रहती है और पवन मुक-
मुक कर झकझोरे लिया करता है अर्थात् वायु बहुत तेज चला करती
है । बाघ और सिह समूह गुजारते है और हाथी पेडो को तोड़ते है ।
अन्धकार छाये रहने के कारण रात और दिन का सारा का सारा अन्तर
मिट सा जाता है । कभी-कभी ओलो की वृष्टि सहन करनी पड़ती है।
ऐसे समय मे स्वदेश अमृत और विदेश विष के समान होता है । अत.
हे प्रियतम | भादो मे कभी घर नहीं छोडना चाहिये ।
७-कुवारवणेन
प्रथम पिडहित प्रकट पितर पावन घर आवै।
नव दुर्गनि नर पूजि स्वर्ग अपवर्गहि पावै ॥
छत्रनिदै छितिपाल लेत, मुव लै सँग पंडित ।
केशवदास अकास अमल जल थल जनमडित ॥
रमनीय रजनि रजनीशरुचि रमार मनहूँ रासरति ।
कलकेलि कलपतरु कारमहि कंतन करहु विदेशमति ॥३०॥
पृष्ठ:कवि-प्रिया.djvu/१८२
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