पृष्ठ:कवि-प्रिया.djvu/१८२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( १६७ )

ओर चमकती है और पृथ्वी भी मानो अपने मनभावन (जल) से भेंट करके, मोरो के बहाने कूजती है। इस प्रकार सभी (जड़-चेतन) स्त्री-पुरुष रमने रमाने लगे। अत हे प्रियतम! विदेश गमन करने की कौन कहे, सावन मे तो लोग गमन (गौना, द्विरागमन) तक नहीं करते।

२-भादौवर्णन

घोरत घन चहुँ ओर, घोष निरघोषनि मंडहिं।
धाराधर धर धरनि मुशलधारन जल छंडहि॥
झिल्लीगन झनकार पवन, झूकि झुकि झकझोरत।
बाघ, सिह, गुजरत पुज, कुजर तरु तोरत॥
निशिदिन विशेषनिहिशेष मिटिजात सुअोली ओड़िये।
देश पियूष विदेश विष भादौ, भवन न छोड़िये॥२९॥

भादो मे बादल चारो ओर घिर कर गम्भीर गर्जना किया करते है। और पृथ्वी के निकट आ-आकर, मूसल जैसी धारा से पानी वर्षाया करते हैं। झिल्लियो की झनकार सुनायी पडती रहती है और पवन झुक-झुक कर झकझोरे लिया करता है अर्थात् वायु बहुत तेज चला करती है। बाघ और सिह समूह गुजारते है और हाथी पेडो को तोड़ते है। अन्धकार छाये रहने के कारण रात और दिन का सारा का सारा अन्तर मिट सा जाता है। कभी-कभी ओलो की वृष्टि सहन करनी पड़ती है। ऐसे समय मे स्वदेश अमृत और विदेश विष के समान होता है। अत. हे प्रियतम! भादो मे कभी घर नहीं छोडना चाहिये।

७-कुवारवर्णन

प्रथम पिडहित प्रकट पितर पावन घर आवैं।
नव दुर्गनि नर पूजि स्वर्ग अपवर्गहि पावैं॥
छत्रनिदै छितिपाल लेत, मुव लै सँग पंडित।
केशवदास अकास अमल जल थल जनमडित॥
रमनीय रजनि रजनीशरुचि रमार मनहूँ रासरति।
कलकेलि कलपतरु क्कारमहि कंतन करहु विदेशमति॥३०॥