पृष्ठ:कवि-प्रिया.djvu/१८५

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में असहय दुख होता है। अत हे प्रियतम! मन, कर्म, वचन से इन बातो पर विचार करके, पूस मास, मे, यात्रा की बात न सोचिए।

११-माघवर्णन

वन, उपवन, केकी, कपोत, कोकिल कल बोलत।
केशव भूले भ्रमर भरे, बहुभायन डोलत॥
मृगमद मजय कपूरधूर, धूसरति दशौदिशि।
ताल, मृदङ्ग, उमङ्ग सुनत सगीत गीत निशि॥
खेलत वसन्त संतत सुघर, संत असंत अनत गति।
घर नाह न छोड़िय माघमे जो मनमाहँ सनेह मति॥३४॥

माघ मे मोर, कबूतर, तथा कोयले वन तथा उपवनो मे बोलते है। (केशवदास पत्नी की ओर से कहते है कि) बहुत से भावो से भरे हुए भौंरे इधर-उधर घूमते है। दशो दिशाए कस्तूरी, चन्दन तथा कपूर धूल से भरी रहती है। लोग ताल मृदङ्ग, उपङ्ग आदि बाजो पर रात में सगीत की ध्वनि सुना करते है। भले और बुरे सभी लोग अनेक प्रकार से लगातार वसत खेलते है। इसलिए हे कत! यदि मन मे तनिक भी स्नेह हो तो माघ मे घर को न छोडिए।

१२–फागुनवर्णन

लोक लाज तप राज रंक, निरशङ्क विराजत।
जोइ भावत सोइ कहत, करत पुनि हॅसत न लाजत।
घर घर युवती जुवनि, जार गहि गांठनि जोरहि।
वसन छीनि मुख मीडि आंजि लोचन तृण तोरहि॥
पटवास सुवास अकास उड़ि, भूमंडल सब मंडिये।
कहि केशवदास विलासनिधि फागुन फाग न छंडिये॥३५॥

फागुन मे राजा से लेकर रक तक लज्जा छोडकर निशक हो जाते हैं, और जो उनके मन को अच्छा लगता वही कहते और करते है।