पिका
जाय । उस शत्र को धिक्कार है, जो सदा चित्त मे खटकता न रहे । उस
चित्त को धिक्कार है, जिसमे उदार मति का आभाव हो। ('केशवदास'
कहते हैं कि ) उस मति को धिक्कार है जो ज्ञान के बिना हो और उस
ज्ञान को धिक्कार है जो हरि भक्ति से रहित हो।
उदाहरण-२
सवैया
शोभित सो न सभा जहँ वृद्ध न, वृद्ध न ते जु पढ़े कुछ नाही ।
ते न पढ़े जिन साधु न सावित, दीहदया न दिपै जिनमाही ।
सो न दया जु न धर्म धरै धर, धर्म न सो जहें दान वृथाही ।
दान न सो जहें सांच न, केशव सांच न सो जुबसै छलछाही ॥३॥
वह सभा शोभित नहीं होती, जिसमे कोई वृद्ध नहीं होता और वह
वृद्ध अच्छा नहीं लगता जो कुछ पढा नहीं होता। वे पढे-लिखे अच्छे
नहीं लगते जिनके हृदय मे साधु जनोचित दया दीप्तमान नहीं होती
रहती वह दया नहीं, जिसके साथ धर्म न हो। वह धर्म नहीं, जहाँ दान
व्यर्थ माना जाता हो । वह दान नहीं, जहाँ सत्य न हो और ( केशवदास
कहते है कि ) वह सत्य नही जिसमे छल की छाया मात्र भी रहे ।
उदाहरण-३
छप्पय
तजहु जगत बिन भवन, भवन तजि तिय बिन कीनो।
तिय तजि जुन सुख देई, सुसुख तजि सपति हीनो ।
संपति तजि बिनु दान, दान तजि जहें न विप्रमति ।
विप्र तजहु बिन धर्म, धर्म तजि जहाँ न भूपति ॥
तजि भूप भूमि बिन भूमि तजि, दीहदुर्ग बिनु जो बसइ ।
तजि दुर्ग सुकेशवदास कवि जहाँ न जल पूरण लसइ ॥४॥
ऐसे ससार को छोड दो जहाँ अपना भवन न हो और ऐसा घर छोड
दो जो बिना स्त्री का हो । उस स्त्री को छोड दो जो सुख न देती हो। उस
पृष्ठ:कवि-प्रिया.djvu/१८८
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