पृष्ठ:कवि-प्रिया.djvu/१९७

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रावण के शिर, श्रीराम (श्रीविष्णु के दश अवतार, विश्वेदेवा और दोष, (चोरी, जुआ, अज्ञानता, कायरता, गूंगापन, कुरूपता, अधापन, लंगड़ापन बहरापन, और क्लीवता) ये दश सख्या के सूचक है।

उदाहरण (१)

कवित्त

एक थल थित पै बसत प्रति जन जीव,
द्विकर पै देश देश कर को धरनु है।
त्रिगुन कलित बहु बलित ललित गुन,
गुनिन के गुनतरु फलित करनु है।
चार ही पदारथ को लोभ चित नित नित,
दीबे को पदारथ समूह को परनु है।
'केशोदास' इन्द्रजीत भूतल अभूतल, पच,
भूत की प्रभूत भवभूति को शरनु है॥२२॥

वह एक स्थान पर रहते है, परन्तु प्रत्येक मनुष्य के हृदय मे निवास करते है। वह हैं तो दो हाथ वाले, परन्तु देश-देश के निवासियो के हाथो को पकड़े हुए है अर्थात् सहारा दिए हुए है अथवा रक्षक है या देश-देश के राजाओ से कर लेते है। वह तीन गुण (सत्व, रज और तम) से सम्पन्न होने पर भी बहुत से सुन्दर गुणो से युक्त है और गुणवानो के गुणरूपी वृक्षो को फलित करने वाले है। उनके मन में चार (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) पदार्थो का ही लोभ नित्य रहता है, परन्तु पदार्थो के समूह को देने का प्रण किए हुए है। 'केशवदास' कहते हैं कि राजा इन्द्रजीत इस पृथ्वी के अभूतपूर्व राजा है, वह है तो पंचभूतो से उत्पन्न परन्तु सारे ससार को शरण देने वाले है।

उदाहरण-२

कवित्त

दरशै न सुर से नरेश शिरनावै नित,
षट दर्शन ही को शिर नाइयतु है।