केशवदास कहते है कि जहाँ सहायता के घटने पर भी (अर्थात् सहायहीन होने पर भी) स्वाभिमान को न छोड़ा जाय, वहाँ सभी श्रेष्ठ कविगण 'ऊर्ज' अलंकार कहते है।
उदाहरण
सवैया
को बपुरो जो मिल्यो है विभीषण है कुलदूषण जीवैगो कौलों।
कुम्भकरन मरयो मघवारिपु, तौह कहा न डरो यम सौलों।
श्रीरघुनाथ के गातनि सुन्दरि जानसितूँ कुशलात न तौलों।
शाल सबै दिगपालनिको कर रावण के करवाल है जौलों॥५२॥
(रावण मन्दोदरी से कहता है कि) विभीषण जो रामचन्द्र से जा मिला है, वह बेचारा क्या है और वह कुलकंलक जीवेगा ही कब तक? कुम्भकर्ण और मेघनाथ भी जो मर गये, उसका भी मुझे शोच नहीं है मैं तो यमराजो से भी नहीं डरता। हे सुन्दरी! जब तक समस्त दिग्पालो को शालनेवाला खड्ग मेरे हाथो मे है, तब तक श्रीरामचन्द्र जी के शरीर को कुशल मत समझ।
१७-रसवत अंलकार
दोहा
रसवत होय सुजानिये, रसवत केशवदास।
नब रसको सक्षेपही, समझो करत प्रकास॥५३॥
'केशवदास' कहते है कि किसी भी रस-मय वर्णन को रसवत अंलकार समझिए। अथवा यह मानिए कि यह अंलकार मानो नवो रसो का सक्षेप मे प्रकटीकरण है।
उदाहरण
श्रृंड़्गार रसवत
आन तिहारी, न आन कहौ, तनमे कछु न न आनही कैसो।
केशव स्याम सुजान स्वरूप न, जाय कह्यो मन जानतु जैसो॥