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पृष्ठ:कवि-प्रिया.djvu/२२१

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लोचन शोभहिं पीवत जात, समात सिहात, अघात न तैसो।
ज्यों न रहात बिहात तुम्हे, बलिजात सुबात कहौ टुक वैसो॥५४॥

मैं आपको शपथ खाकर कहती हूँ कि 'मुझे आपसे और कुछ भी नहीं कहना है।' ( यदि कुछ कहना चाहती हूँ तो यही कि कुछ कुछ आपका शरीर तथा पूर्णरूप से मुख अन्य ( अर्थात् मेरे पति ) जैसा ही है। ( केशवदास उस नायिका की ओर से कहते है कि ) सुजान श्याम का जैसा स्वरूप है, वह कहा नहीं जा सकता। वह जैसा है, वैसा मन ही जानता है। ( परन्तु ) मेरे नेत्र आपकी शोभा को भी पीते जाते है, उसी मे समाते से जाते है और वैसे ही सिहाते हुए अघाते नहीं। यदि आपको मेरे पास रहते नहीं बनता तो मै बलिहारी जाती हूँ, थोड़ी देर मेरे पास बैठकर कुछ बातें ही कोजिए।'

[इसमें वियोग श्रृङ्गार मुख्य है, क्योकि नायिका वियोगिन है परन्तु अन्य पुरुष से प्रेम प्रकट करती हुई बाते करना चाहती है, अत संयोग श्रृङ्गार भी गौण रूप से विधमान है। अत: वियोग श्रृङ्गार का पोषक संयोग श्रृङ्गार रसवत है]

वीर रसवत

छप्पय

जिहि शर मधुमद मर्दि, महामुर मर्दन कीनों।
मारयो कर्कस नरक शंख, हनि शंख सुलीनों॥
निकण्टक सुरकटक कयो, कैटभ वपु खण्डयो।
खरदूषण त्रिशिरा कबन्ध तरु खण्ड विहण्डयो॥
बल कुम्भकरण जिमि सहरयो पल न प्रतिज्ञातै टरौ।
तिहि बाण प्राणदशकंठ के, कंठ दशो खंडित करौ॥५५॥

जिस वाण से मैंने 'मधु' राक्षस के अभिमान को चूर किया और जिससे मैंने 'मुर' राक्षस का मर्दन किया। जिससे दुष्ट नरकासुर और