( २०४ )
लोचन शोभहिं पीवत जात, समात सिहात, अघात न तैसो।
ज्यों न रहात बिहात तुम्हे, बलिजात सुबात कहौ टुक वैसो ॥५४॥
मै आपको शपथ खाकर कहती हूँ कि 'मुझे आपसे और कुछ भी
नही कहना है । ( यदि कुछ कहना चाहती हूँ तो यही कि कुछ कुछ
आपका शरीर तथा पूर्णरूप से मुख अन्य ( अर्थात् मेरे पति ) जैसा ही
है । ( केशवदास उस नायिका की ओर से कहते है कि ) सुजान श्याम का
जैसा स्वरूप है, वह कहा नहीं जा सकता। वह जैसा है, वैसा मन ही
जानता है । ( परन्तु । मेरे नेत्र आपकी शोभा को भी पीते जाते है, उसी
मे समाते से जाते है और वैसे ही सिहाते हुए अघाते नहीं। यदि आपको
मेरे पास रहते नहीं बनता तो मै बलिहारी जाती हूँ, थोडी देर मेरे पास
बैठकर कुछ बातें ही कोजिए।'
[इसमे वियोग शृङ्गार मुख्य है, क्योकि नायिका वियोगिन है परन्तु
अन्य पुरुष से प्रेम प्रकट करती हुई बाते करना चाहती है, अत. सयोग
शृङ्गार भी गौण रूप से विधमान है । अत वियोग शृङ्गार का पोषक
सयोग शृङ्गार रसवत है]
वीर रसवत
छप्पय
जिहि शर मधुमद मर्दि, महामुर मर्दन कीनों।
मारयो कर्कस नरक शंख, हनि शंख सुलीनों।
नि कण्टक सुरकटक कयो, कैटभ वपु खण्डयो।
खरदूषण त्रिशिरा कबन्ध तरु खण्ड विहण्डयो॥
बल कुम्भकरण जिमि सहरथो पल न प्रतिज्ञात टरौ।
तिहि बाण प्राणदशकंठ के, कठ दशो खडित करौ ॥५॥
जिस वाण से मैने 'मधु' राक्षस के अभिमान को चूर किया और
जिससे मैने 'मुर' राक्षस का मर्दन किया। जिससे दुष्ट नरकासुर और
पृष्ठ:कवि-प्रिया.djvu/२२१
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