उदाहरण (२)
सवैया
पाप की सिद्धि, सदा ऋणवृद्धि सुकीरति आपनी आप कहीकी।
दु ख को दान जू सूतकन्हान जु दासीकी सतति, संतत फीकी॥
बेटीको भोजन, भूषण रॉड़को, केशब प्रीति सदा वरतीकी।
युद्धमे लाज, दया अरि कों, अरु ब्राह्मणजातिसों जी तननीकी॥७७॥
सिद्धि अच्छी होने पर भी पाप की सिद्धि अच्छी नहीं। इसी प्रकार वद्धि भी अच्छी है परन्तु ऋण की वृद्धि अच्छी नहीं। सुकीर्ति अच्छी है परन्तु अपने मुँह से कही हुई नहीं। दान अच्छा है। पर दुख का नहीं, स्नान अच्छा है, पर सूतक का नही, सन्तान अच्छी है पर दासी से उत्पन्न सतति कभी भी अच्छी नहीं। भोजन अच्छा है पर बेटी के यहाँ नहीं, भूषण अच्छे है पर विधवा के लिए नहीं। 'केशवदास' कहते है कि इसी तरह प्रीति अच्छी है, परन्तु पर स्त्री से नहीं। लज्जा अच्छी है, पर युद्ध मे नहीं, दया अच्छी है पर शत्रु पर नहीं। विजय अच्छी है पर ब्राह्मण जाति पर नहीं।
[इसमे 'सिद्धि', 'वृद्धि', 'कीर्ति', 'दान', 'स्नान', 'सन्तति', 'भोजन', भूषण', प्रीति', लज्जा', दया', और जीत शब्द युक्त होने पर भी अयुक्त करके वर्णन किए गये है, अत: युख्तायुख्त अर्थान्तर न्यास अलंकार है।]
१९ व्यतिरेक
दोहा
तामें आनै भेद कछु, होय जु वरतु समान।
सों व्यतिरेक सु भॉति द्वै, युक्त सहज परिमान॥७८॥
जहाँ एक समान दो वस्तुओ मे कुछ भेद या अन्तर दिखलाया जाय, वहाँ व्यतिरेक अलंकार होता है। वह दो प्रकार का होता है। (१) युख्त और (२) सह