पृष्ठ:कवि-प्रिया.djvu/२४१

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(२२४)

उदाहरण (१)

सवैया

ज्यों-ज्यों हुलाससों केशवदास, विलास निवास हिये अबरेख्यो।
त्यों-त्यों बढ्यो उर कप कछू भ्रम, भीत भयो किधौ शीत विशेख्यो॥
मुद्रित होत सखी वरही मन नैन, सरोजनि साच कै लेख्यो।
तै जु कह्यो मुख मोहन को अरविद सोहै, सोतो चन्द देख्यो॥२॥

'केशवदास' (किसी खंडिता की ओर से उसी सखी से) कहते है कि मैंने जैसे जैसे विलास-निवास (श्री कृष्ण) को हृदय से देखा, वैसे-वैसे मेरे हृदय मे कप बढ गया। मै नहीं जानती कि वह भ्रम वश ऐसा हुआ, या मुझे डर लग गया या विशेष शीत लग गया मेरी कमल जैसी आँखे बरबस मुँदी जा रही है। मैने तो तेरा कहना सच मान लिया था कि मोहन (श्रीकृष्ण) का मुख कमल सा है परन्तु अब देखा तो उसे चन्द्र जैसा पाया (अन्यथा यह बात न होती तो मेरी आँखे उन्हें देखकर क्यो मुँद जाती, क्योकि चन्द्रमा को देखकर ही कमल मुँदता है)।

गूढ भाव यह छिपा हुआ है कि उनके मुख पर अन्य स्त्री के काजल आदि के चिन्ह है इसी से मैने उनकी ओर से मारे क्रोध के आँखें बन्द कर ली।)

उदाहरण (२)

सवैया

अंग अली धरिये अंगियाऊ न आजु ते नीद न आवन दीजै।
जाति हौ जिय नाते सखीन के, लाज हू को अब साथ न लीजै॥
थोरेहि घौस ते खेलन तेऊ लगी, उनसो जिन्हे देखि कै जीजै।
नाह के नेह के मामिले आपनी छांहहु को परतीति न कीजै॥५॥