दो०-समुझैं बाल बालकन, बर्णन पन्थ अगाध।
कविप्रिया केशव करी, क्षमियहु कवि अपराध॥१॥
केवशदास कहते है कि मैंने इस कविप्रिया पुस्तक को इसलिए लिखा है कि जिससे कविता के अगाध रहस्य को स्त्री तथा बालक भी समझ सकें, अतः कविगण मेरा अपराध क्षमा करे।
अलंकार कवितान के, सुनिगुनि विविध विचार।
कविप्रिया केशव करी, कविता को श्रृगार॥२॥
कविता के अलकारादि विविध गुणो को विचारपूर्वक सुनने और समझने के बाद 'केशव' ने कविता की शोभा इस कविप्रिया को लिखा है।
सगुन पदारथ अरथयुत, सुबरन मय, शुभ साज।
कंठमाल ज्यों कविप्रिया, कंठ करहु कविराज॥३॥
हे कविराज! इस 'कविप्रिया' को गले का हार के समान गले में पहन लो ( कठस्थ करलो )। इसमे काव्य के गुण ( ओज, प्रसाद, माधुर्य ) का डोरा है। काव्यार्थ ही इसके पदार्थ ( मणि-माणिक्य-रत्नादि ) है और सुन्दर अक्षर ही इसके सोने के गुरियाँ है और यह भली भाँति सजाया गया है।
चरण धरत चिता करत, नींद न भावत शोर।
सुबरण को सोधत फिरत, कवि व्यभिचारी, चोर॥४॥
कवि, व्यभिचारी और चोर सदा सुबरण ( सुन्दर अक्षर, सुन्दर रग और सोना ) ढूंढते रहते है। कवि, छन्द का एक-एक चरण