पृष्ठ:कवि-प्रिया.djvu/२६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( १६ )

रचते समय अच्छी तरह सोचता-विचारता है। उसे न नींद अच्छी लगती है और न कोलाहल सुहाता है। वह सुन्दर अक्षर खोजता है। व्यभिचारी, एक एक चरण ( पैर ) सोच-समझ कर रखता है। उसको ( दूसरो की ) नींद ( निद्रा) तो अच्छी लगती है परन्तु कोलाहल अच्छा नहीं लगता। वह सुन्दर रंग की नायिका खोजता है। चोर भी एक-एक चरण ( पैर ) रखते समय सोचता-विचरता है ( सभल कर पैर रखता है कि कहीं कोई आहट न सुनले ) और उसे भी दूसरो की नींद ( निद्रा ) अच्छी लगती है और कोलाहल नहीं सुहाता। वह सोना ढूँढता रहता है।

रचत रच न दोष युत, कविता, बनिता मित्र।
बुदक हाला परत ज्यों, गंगा घट अपवित्र।।५।।

कविता, स्त्री तथा मित्र में थोड़ा सा भी दोष हो तो वे इस प्रकार अच्छे नहीं लगते जिस प्रकार मदिरा की एक बूँद पड़ते ही गया जल का भरा हुआ पूरा घड़ा अपवित्र हो जाता है।

विप्र न नेगी कीजई, मुग्ध न कीजै मित्त।
प्रभु न कृतघ्ना सेइये, दूषणसहित कवित्त॥६॥

बाह्मण को नेगी ( अधिकारी ) और मूर्ख को मित्र, न बनाना चाहिए। कृतघ्न स्वामी की सेवा न करनी चाहिए तथा दोष युक्त कविता नहीं रचनी चाहिए।

दोषोंं के नाम और लक्षण

अन्ध बधिर अरु पगु तजि, नगन, मृतक मतिशुद्ध।
अन्ध विरोधी पन्थ को, बधिरजो शब्दविरुद्ध॥७॥

हे मतिशुद्ध ( शुद्ध बुद्धि वाले ) तुम 'अन्ध', 'बधिर', 'पगु','नग्न', तथा मृतक ( इन पाँचो दोषो ) को छोड़ दो। कविता के पन्थ का विरोधी 'अन्ध' दोष है अर्थात् कविता की बँधी हुई प्राचीन परम्पराओ से हटना अन्ध दोष कहलाता है। विरुद्ध ( परस्पर विरोधी ) शब्दो का प्रयोग 'बधिर' दोष है।