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उदाहरण

कवित्त

शीतलहू हीतल तुम्हारे न बसति वह,
तुम न तजत तिल ताको उर ताप गेहु।
आपनो ज्यौ हीरा सो पराये हाथ ब्रजनाथ,
दैके तो अकाथ साथ मैन ऐसो मन लेहु।
एते पर 'केशौदास' तुम्हे परवाह नाहि,
वाहै जक लागी भागी भूख सुख भूल्यो गेहु।
माड़ो मुख छांड़ो छिन छल न छवीले लाल,
ऐसी तो गॅवारिन सों तुम्ही निबाहौ नेहु॥२३॥

(कोई दूती श्रीकृष्ण से आकर कहती है कि) वह तो तुम्हारे शीतल हृदय में भी नहीं रहती और तुम उसके तप्त हृदय-निवास को एक घड़ी भर को नहीं छोड़ते अर्थात् तुम्हारे हृदय मे उसके प्रति प्रेम की गर्मी नहीं है और तुम उसके विरह से जलते हुए हृदय मे सदा रहते हो। हे ब्रजनाथ! तुम अपना हीरा सा मन पराये हाथ मे देकर उसका मोम जैसा मन ब्यर्थ हो लेते हो अर्थात् तुम हीरा के समान कठोर मन रखते हो और वह मोम जैसा कोमल मन रखती है। केशवदास (दूती की ओर से) कहते हैं कि इतने पर भी तुम्हे अपने हीरा जैसे मन की परवाह नहीं है और उसे अपने मोम जैसे मन की ऐसी धुन लग गई है कि तुम्हारे पास उसके मन के आ जाने से उसकी भूख भाग गई है, घर और सुख भी भूल गया है। वह मुख से तो प्रशंसा करती है, पर क्षण भर के लिए भी छल नहीं छोड़ती। हे छवीले लाल! ऐसी गॅवारिन से तुम्ही प्रेम निबाहते हो। दूसरा अर्थ यह भी निकल सकता है कि वह तो ऐसी गॅवारिन नहीं