को चन्द्रमा जैसा समझ कर, चकोर की भॉति, उसी ओर देखते रहते है।
९---नियमोपमा
दोहा
एकहि क्रम जहँ, बरणिये, मन क्रम वचन विशेष।
केशवदास प्रकास बस, नियमोपमा सुलेष॥२१॥
'केशवदास' कहते है कि जहाँ किसी उपमेय का एक वही उपमान बतलाया जाय जिस पर वर्णन करने वाले का मन, क्रम और वचन से विशेष प्रेम हो, वहाँ इस तरह के प्रकाशवश (वर्णन के कारण), उसे नियमोपमा समझना चाहिये।
उदाहरण
कवित्त
कलित कलक केतु, केतु अरि, सेत गात,
भोग योग को अयाग, रोग ही को थल सो।
पूनो ही को पूरन पै आन दिन ऊनो ऊनो,
छिन छिन छीन छवि, छीलर के जल सो।
चन्द सो जु बरनत रामचन्द्र की दुहाई,
सोई मतिमन्द कवि केशव मुसल सो।
सुन्दर सुबास अरु कोमल अमल अति,
सीता जू को मुख सखि! केवल कमल सो॥२२॥
वह कलङ्क का केतु है अर्थात् कंलकी है। केतु (राहु से तात्पर्य है) उसका बैरी है, श्वेत शरीर वाला (कोढ़ी जैसा) है, भोग-योग के अयोग्य है और रोग (क्षय) का तो घर ही है। केवल पूनो ही को पूरे आकार से निकलता है और अन्य दिनों में कम होता जाता है। छिछले तालाब के जल के समान दिन-दिन उसकी छवि छीण