वे सब डरते है (कि कोई यज्ञ करके मेरा आसन न छीन ले)। ये कलङ्क रङ्क (कलङ्क से दरिद्र) अर्थात् निष्कलक है, वे कलंक (अहल्या-गमन के कारण) से युक्त है। वे अमत पान किये हुए है और इन्होने श्री शंकर जी महाराज की भक्ति का रस पान किया है। ये सचमुच पवित्र है और वे पवित्र जैसे सुने भर जाते है। ये बिना दिये दान देते है, वे बिना दिये कुछ देते नहीं अत: इन्द्र महाराज इन्द्रजीत के समान न तो कभी थे, न है और न होगे ही।
११---अतिशयोपमा
दोहा
एक कछू एकै विषे, सदा होय रस एक।
अतिशय उपमाहोति तहँ कहत सुबुद्धि अनेक॥२५॥
जहाँ किसी उपमेय का एक ही विषय में (सभी उपमानो से बढ़कर कर वर्णन किया जाता है, वहाँ अतिशय उपमा होता है, इस बात को अनेक सुबुद्धि वाले कहते है।
उदाहरण
कवित्त
'केशौदास' प्रगट अकास मे प्रकास मान,
ईश हू के शीश, रजनीश अबरेखिये।
थल थल, जल जल, अमल अचल अति,
कोमल कमल बहु वरण विशेखिये।
मुकुर कठोंर बहु नाहि नै अचल यश,
बसुधा सुधाहू तिय अधरन लेखिये।
एक रस एक रूप, जाकी गीता सुनियत,
तेरों सों बदन सीता तोंही विषे देखिये॥२६॥