पृष्ठ:कवि-प्रिया.djvu/२९४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(२७५)

सुन्दर, सुबास मनु, कोमल अमल तन,
षोड़स बरस मय हरष बढ़ाइये।
बलित ललित बास, 'केशौदास' सबिलास,
सुन्दरि सँवारि लाई गहरु न ल्याइये।
चातुरी की शाला मानि, आतुर ह्वै नन्दलाल,
चंपे की सी माला, बाला उर उरझाइये॥३०॥

जो सगुन (गुणवती और डोरायुक्त) है, सरस (सुन्दर) है। जिसके अंग-अंग रंजित (शोभित या रंगीन) है। हे भाग्यवान सुनो, ऐसी बड़े भाग्य से मिलती है। जो सुन्दर है, निर्मल मनवाली है, सोलह वर्ष की है (चंपा पुष्प भी सोलह वर्ष मे अति सुगंधित होता है, और आनन्द को बढ़ाने वाली है जो ललित (सुन्दर) बास (वस्त्र तथा गन्ध) से बलित (युक्त) है, और (केशवदास कहते है कि) सविलास (आनन्द और शोभा वाली) भी है जिसे कोई सुन्दरी स्त्री सवार कर (सज्जित करके और अच्छी तरह गूँथकर) लाई है। अत: देर न लगाइये और उस स्त्री को (जो उसे लाई है चतुराई की शाला (बुद्धिमती) मानकर, हे नन्दलाल (श्री कृष्ण) उसे चंपे की माला के समान बाला को अपने गले मे पहना लीजिए।

१४---धर्मोपमा

दोहा

एक धर्मको एक अँग, जहां जानियतु होय।
ताहीसों धर्मोपमा, कहत सयाने लोय॥३१॥

जहाँ किसी धर्म अर्थात् वस्तु के एक ही अंग (गुण) का वर्णन हुआ हो, वहाँ उसे चतुर लोग धर्मोपमा कहते है ।