( २७९ )
वह है द्विजराज, तेरे द्विजराजी राजै वह,
कलानिधि, तुहूँ कलाकलित बखानिये ।
रत्नाकर के है दोऊ केशव प्रकाश कर,
__अबर बिलास, कुवलय हितु गानिये ।
वाके अति सतिकर, तुहूँ सीता | सीतकर,
चन्द्रमा सी चन्द्रमुखी सब जग जानिये ॥३८॥
( कोई ग्रामवासिनी स्त्री सीता जी से कहती है कि ) चन्द्रमा को
मृगाक कहते हैं तो आपको सब मृगनैनी कहते है । वह सुधाधर है तो आप
भी सुधा जैसे अधर रखने वाली है। वह द्विजराज कहलाता है तो आपके
द्विज ( दॉत ) को राजी (पक्ति) सुशोभित होती है। वह कलानिधि है
तो आप भी चौंसठ कलाओ से युक्त मानी जाती है । 'केशवदास' (ग्रामीण
स्त्री की ओर से ) कहते है कि वह और आप दोनो ही रत्नाकर के
प्रकाशक है । वह अम्बर ( आकाश ) मे विलास करता है तो आप मे
अम्बर ( वस्त्र ) विलास करते है । चन्द्रमा कुवलय ( कुमोदिनी ) का हितू
है तो आप कु-वलय (पृथ्वी मडल ) कि हितू हैं । हे सीता जी । उसके
अति शीतल करने का गुण है तो आपके भी ( दर्शको तथा भक्तो ) को
( सताप हटाकर ) शीतल करने का गुण है। इसलिए हे चन्द्रमुखी आप
चन्द्रमा के समान ही है। इसे सब जग जानता है।
१८--असभवितोपमा
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दोहा
जैसे भाव न संभवै, तैसे करत प्रकास ।
होत असभवित तहाँ उपमा केशवदास ॥३६॥
'केशवदास' कहते हैं कि जहाँ ऐसे भावो का वर्णन किया जाता है
जो सम्भव न हो, वहाँ उसे असभावित उपमा कहते है ।
पृष्ठ:कवि-प्रिया.djvu/२९७
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