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'केशवदास' कहते है कि उपमान और उपमेय में अभेद वर्णन किया जाय, वहाँ उसे 'परस्परोपमा' कहते है।

उदाहरण

कवित्त

बारे न बड़े न वृद्ध, नाहिनै गृहस्थ सिद्ध,
बावरे न बुद्धिवंत, नारी और नर से।
अंगी न अनगी तन, ऊजरे न मैले मन,
स्यार ऊ न शूरे रन, थावर न चर से।
दूबरे न मोटे, राजा रंक ऊ न कहे जायें,
मर न अमर अरु आपने न पर से।
वेद हू न कछु भेद पावत है 'केशवदास'
हरि जू से हेरे हर, हरि हरे हर से॥४६॥

न तो वे बारे (छोटे) से है, न बड़े से, न वृद्ध से, न गृहस्थ से, न सिद्ध से, न पागल से, न बुद्धिमान से, न नारी से और नर से है। न वे शरीरधारी से है, न अंग रहित से है, न उजले से है, न मैले से है, न कायर मन जैसे है, न युद्ध वीर से है, न स्थावर से हैं और न जगम से है। न दुबले से है, न मोटे जैसे है, न राजा से और न रंक से भी कहे जा सकते है, न मरणशील से है न अमर से हैं। न अपने से हैं और न पराये जैसे है। 'केशवदास' कहते है, कि जिनका भेद वेद तक नहीं पाते, वे हरि (श्री विष्णु जी श्री शङ्कर जी के समान देखे और श्री शङ्कर जी को विष्णु के समान पाया।

इक्कीस भेदो का वर्णन करने के बाद श्री केशवदास ने उपमा का एक भेद सकीर्णोपमा भी लिखा है।