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(२८६)

यमक के भेद

दोहा

अव्ययेत सव्ययेत पुनि, यमक बरन दुई देत।
अव्ययेत बिनु अतरहि, अन्तर सो सव्ययेत॥४॥

यमक के फिर दो भेद और होते है। जहाँ पदो में अन्तर नहीं होता अर्थात् जो जुड़े हुए रहते है, वह अव्ययेत कहलाता है और जहाँ अन्तर होता है अर्थात् जहाँ बीच मे दूसरा पद आ जाता है, वह सव्ययेत कहलाता है।

द्वितीयपद यमक

दोहा

मान करत सखि कौनसों, हरि तू हरितू आहि।
मान भेद को मूल है, ताहि देखि चित चाहि॥५॥

हे सखी तू किससे मान करती है। तू तो हरि (श्रीकृष्ण) ही है अर्थात् वे और तू एक ही है, इसलिए आहि अर्थात् दुःख भरी श्वास को हरण कर ले या दूर कर दे। मान ही तो भेद की जड़ है अतः उन्हें प्रेमपूर्वक देख।

[इसमे द्वितीय पद मे हरितू हरितू पदो मे यमक है, अत द्वितीय पद यमक नाम पड़ा]

तृतीय पदयमक

दोहा

शोभा शोभित ऑगनरु, हय हीसत हयसार।
बारन बारन गुंजरत, बिन दीने संसार॥६॥

शोभा से सुशोभित आंगन, हींसते हुए घोड़ों से भरी घुड़साल (स्तबल) और दरवाजे पर चिंघाड़ते हुए हाथी।