पृष्ठ:कवि-प्रिया.djvu/३०७

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हे मानिनी! तुझे तेरा प्राण प्यारा स्वंय मना रहा है, देख और मान जा। हरि (श्रीकृष्ण) को सुजान जानकर अपने चित्त में इसका विचार कर।

[इसमें 'माननि-माननि', तथा 'सुजान' में यमक है। एकपादान्त है, दूसरा पादादि]

द्विपादांत यमक

दोहा

जिन हरि जगको मन हरयो, बाम बानदृग चाहि।
मनसा वाचा कर्मणा, हरि बनिता बनि ताहि॥१२॥

हे वाम! जिन हरि (श्रीकृष्ण) ने वाम दृग (तिरछी दृष्टि) से देखकर सारे संसार का मन हर लिया है, उन हरि की तू मन, वचन और कर्म से बनिता (स्त्री) बन जा।

[इसमे 'बाम-बाम' तथा 'बनिता बनिता' में यमक है]

उत्तरार्द्ध यमक

दोहा

आजु छबीली छबि बनी, छांड़ि छलिन के संग।
तरुनि, तरुनि के तर मिलौ, केशव के सब अंग॥१३॥

आज (श्रीकृष्ण) की शोभा अच्छी बनी है। अतः छलियों का संग छोड़कर, हे तरुणि! वृक्षो के नीचे, श्रीकृष्ण के सब अंगो से लिपट कर मिल।

[इसमे उत्तराई के दोनो चरणो में 'तरुनि तरुनि' तथा 'केशव' केशव में यमक है]