( २९. )
त्रिपाद यमक
दोहा
देखि प्रबाल प्रबाल हरि, मन मनमथरस भीन ।
खेलन यह सुन्दरि गई, गिरि सुन्दरी दरीन ॥१४॥
वृक्षो के नये पत्ते तथा युवक हरि ( श्रीकृष्ण) को देखकर वृथा
काम मे लीन होकर, वह सुन्दरी पहाडो की सुन्दर गुफाओ मे खेलने
को गई।
[इसमे तीसरे पद को छोडकर शेष तीनो मे यमक है। पहले
में 'प्रबाल-प्रबाल' से दूसरे मे 'मन-मन' मे और चौथे मे 'दरी-
दरी' मे।]
दोहा
परमानद पर मानदहि, हेखति बन उतकण्ठ ।
यह अबला अब लागिहै, मन हरि हरि के कण्ठ ॥१॥
अत्यन्त आनन्द स्वरूप तथा दूसरो को मान देने वाले ( श्रीकृष्ण )
को देख कर, बन मे यह अबला, हरि ( श्रीकृष्ण) का मन हर कर,
उनके कण्ठ से अब लगेगी।
[इसमे 'परमानद-परमानद', 'अबला-अबला', तथा 'हरि-हरिए
पदो मे यमक है।
जूझि गयो संग्राम मे, सूर जु सुरजु. लेखि ।
दिविरमणी रमणीय करि, मूरति ररि सम देखि ॥१६।।
हे सूर । सूर्य सग्राम मे जूझ चुके हैं अर्थात् अस्त हो चुके है अत.
स्वर्ग की रमणी अर्थात् अप्सरा जैसी रमणीय तथा रति के समान मूर्ति
वाली को चलकर देखो।
पृष्ठ:कवि-प्रिया.djvu/३०८
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