पृष्ठ:कवि-प्रिया.djvu/३१४

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दुखकर यमक--६

दोहा

सुरतरवर में रम्भा बनी, सुरतवर में रम्भा बनी।
सुरतरङ्गिनी करि किन्नरी, सुरतरङ्गिनी करि किन्नरी॥३२॥

मैनें सुरतरुवर (पारिजात) युक्त रम्भावनी (कदली की वनी या बगीचो) में, सुरतरव अर्थात् अपने संगीत में लीन घूमती हुई और रम्भा जैसी बनी-ठनी, सुरतरङ्गिनी स्वरो की नदी स्वरुपिणी किन्नरी (सारङ्गी) लिए, सुरत (सुन्दरता) में रंगिनी अनुरक्त करने वाली किन्नरी देखी।

दुखकर यमक---७

दोहा

श्रीकंठ उर वासुकि लसत, सर्वमङ्गलामार।
श्रीकंठ उर वासुकि लसत, सर्वमङ्गलामार॥३३॥

श्रीकंठ अर्थात् श्रीशङ्कर जी महाराज के हृदय पर वासुकि नाम सुशोभित होता है और वह सर्व मंगलामार (सर्व मंगल+अमार) अर्थात् मंगलमूर्ति और काम रहित है। सर्व मंगला (श्री पार्वती जी) श्रीकंठ (सुशोभित कंठ वाली) है तथा मा (लक्ष्मी) और (अग्नि) स्वरूपिणी है।

दुखकर यमक---८

सवैया

दूषण दूषण के यश भूषण, भूषणअगनि केशव सोहै।
ज्ञान संपूरण पूरणकै, अरिपूरण भावनि पूरण जोहै॥
श्री परमानन्द की परमा, परमानन्द की परमा कहि कोहै।
पातुरसी तुरसी मतिको अवदात रसी तुलसीपति मोहै॥३४॥