( २९६ )
दुखकर यमक-६
दोहा
सुरतरवर मे रम्भा बनी, सुरतवर मे रम्भा बनी।
सुरतरङ्गिनी करि किन्नरी, सुरतरङ्गिनी करि किन्नरी ॥३२॥
म्ने सुरतरुवर ( पारिजात ) युक्त रम्भावनी ( कदली की वनी या
बगीचो ) मे, सुरतरव अर्थात् अपने सगीत मे लीन घूमती हुई और
रम्भा जैसी बनी-उनी, सुरतरङ्गिनी स्वरो की नदी स्वरुपिणी किन्नरी
( सारङ्गी ) लिए, सुरत ( सुन्दरता ) मे रगिनी अनुरक्त करने वाली
किन्नरी देखी।
दुखकर यमक-७
दोहा
श्रीकंठ उर वासुकि लसत, सर्वमङ्गलामार ।
श्रीकठ उर वासुकि लसत, सर्वमङ्गलामार ॥३३॥
श्रीकठ अर्थात् श्रीशङ्कर जी महाराज के हृदय पर वासुकि नाम
सुशोभित होता है और वह सर्व मगलामार ( सर्व मगल+अमार)
अर्थात् मगलमूर्ति और काम रहित है। सर्व मगला ( श्री पार्वती जी)
श्रीकठ ( सुशोभित कठ वाली ) है तथा मा ( लक्ष्मी) और ( अग्नि )
स्वरूपिणी है।
दुखकर यमक-
सवैया
दूषण दूषण के यश भूषण, भूषणअगनि केशव सोहै ।
ज्ञान संपूरण पूरणकै, अरिपूरण भावनि पूरण जोहै ।
श्री परमानन्द की परमा, परमानन्द की परमा कहि कोहै।
पातुरसी तुरसी मतिको अवदात रसी तुलसीपति मोहै ॥३४॥
पृष्ठ:कवि-प्रिया.djvu/३१४
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