सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कवि-प्रिया.djvu/३१५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(२९७)

'केशवदास' कहते है कि जो 'दूषण-दूषण' अर्थात् दूषण राक्षस के वैरी श्रीरामचन्द्र जी के यशरूपी भूषणो (शंख, चक्रादिको को) अपने अंगों पर धारण करके सुशोभित होता है, जो ज्ञान से भरी हुई भावनाओं के द्वारा ईश्वर को संसार व्यापी देखती है। जो परमानद (श्री भगवान्) की परमा (शोभा) पर मुग्ध है अर्थात् उनमें लीन है, उसके लिए आनन्द की परमा (अधिकता) क्या है। अर्थात् वह आनन्द को कुछ नहीं समझता। उसकी मति में (उसके विचार में) वेश्याए तुरसी (खट्टी या बुरी) है, उसकी बुद्धि अवदातरसी (शांत रस मे सनी हुई) रहती है तथा वह तुरसी पति (तुलसीपति) श्री विष्णु पर मोहित होती है।

दोहा


इहिविधि औरहु जानिये, दुखकर यमक अनेक।
बरणत चित्रकवित्त अब, सुनियो सहित विवेक॥३५॥

इसी तरह और बहुत से दुखकर यमक हो सकते हैं। अब मैं चित्र अलंकार के कवित्तो (छन्दो, रचनाओं) में वर्णन करता हूँ। जो विवेकवान हैं, वे सुनूँ।

ये नीचे लिखे छन्द प्रक्षिप्त से ज्ञात होते है, क्योकि यमकालंकार से इनका कोई सम्बन्ध नहीं है।

१-अनुप्रास

छन्द

जो तू सखि न कहै कछु चालहि, तौहौ कहूँ इकबात रसालहि।
तो कहुँ देहुँ बनी बनमालहि, मोकहँ तू मिलबै नॅदलालहि॥३६॥