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पुनः-२
जैसे रचै जय श्री करवालहि । ज्यों अलिनी जलजात रसालहि ।
ल्यों बरषा हर बिन कालहि । त्यों हग देखन चहत गुपालहि ॥३॥
सवैया
स्यदन हांकत होत दुखी दिन दूरि करै सबके दुखददन ।
छंदनि जानी नहीं जिनकी गति नाम कहावत है नॅदनंदन ।।
फंदनपंडुके पूतनिकी मति काटि करै मनमोह निकंदन ।
चदनचेरीके अंग चढ़ावत देव अदेव कहैं जगबंदन ॥३८॥