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पृष्ठ:कवि-प्रिया.djvu/३१६

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पुनः---२

जैसे रचै जय श्री करवालहि। ज्यों अलिनी जलजात रसालहि।
ल्यों बरषा हरषै बिन कालहि। त्यों दृग देखन चहत गुपालहि॥३७॥

सवैया

स्यदन हांकत होत दुखी दिन दूरि करै सबके दुखददन।
छंदनि जानी नहीं जिनकी गति नाम कहावत है नॅदनंदन॥
फंदनपंडुके पूतनिकी मति काटि करै मनमोह निकंदन।
चंदनचेरीके अंग चढ़ावत देव अदेव कहैं जगबंदन॥३८॥